Friday, September 24, 2010

अपनी जान से

अपनों से जुदा कर देती है ,आखों में पानी भर देती है ,
कितनी शिकायत है अपनी
जान से .
फिर भी इसका ऐतबार है ,फिर भी इसका इंतज़ार है ,
हमको मोहब्बत है अपनी
जान से .
कभी खुशियों का अम्बार लगा देती है , कभी तन्हां अकेला छोड़ देती है .
कभी हमपे करम फरमाती है ,कभी हमसे नज़र चुराती है .
पलकों से इसको चखते हैं ,हमेशा पास रहने की तमन्ना रखते हैं ,
इतनी नजाकत है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनीजान से .
हमको अदाएं दिखाती है ये ,जीने-मरने की भी कसमें खाती है ये .
कभी पास है तो कभी दूर है ,मेरी जान भी बड़ी मशहूर है .
कभी करती है आँख मिचोली ,कभी सजाये सपनो की डोली ,
इतनी शरारत है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनीजान से .
दूर ये हो तो गम होता है ,पास हो तो इसका करम होता है .
खुद अपनी मर्ज़ी से चलती है ,सूरज की तरह से ये ढलती है .
इसे जब भी हम देखते हैं ,मन ही मन ये सोचते हैं ,
कितनी हिफाज़त है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनीजान से .
आंसू भी हो तो पी लेते हैं ,पल दो पल ख़ुशी से जी लेते हैं .
हर पल हमको नहीं है रोका ,थोडा हमको भी देती मौका .
जिंदगी गुजर जाए तकरार में ,चाहे गुजर जाए ये प्यार में ,
इतनी इज़ाज़त है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है
अपनीजान से .

विवादित भूमि

विवादित भूमि

आखिर विबाद है क्या यह शायद आमजनता को पता नहीं विवाद असली मुद्दा है आस्था का जुड़ा होना। हिंदू अयोध्या को अपने आराध्य भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं और विवादित भूमि को रामजन्म भूमि कहते हैं, और मुस्लिम समुदाय का मानना है कि १५२७ में बाबर जब भारत आया और एक साल बाद यानि १५२८ मैं उसके सेनापति मीर बाकी ने उसके नाम से यहां मस्जिद बनाई। जबकि हिंदू कहते हैं कि यह मस्जिद मंदिर को तोड़ कर बनाई गई है। इसी विवाद के कारण पहली बार १८५९ सांप्रदायिक दंगे हुए थे। तब देश मैं अंग्रेजों का शासन था तो अंग्रेजी शासकों ने विवादित ज़मीन पर फैसला किया कि भीतर मुसलमानों को और हिंदुओं बाहर पूजा करने की इजाज़त है। साथ ही जाँच के आदेश कर दिए.विवादित ज़मीन पर जाँच के बाद १९४९ मैं मूर्तियाँ मिली। इस पर मुस्लिम समुदाय ने खुलकर विरोध प्रकट किया अतः मामला अदालत में चला गया और सरकार ने जगह को विवादित घोषित कर परिसर में ताला लगवा दिया। अभी इस मुकदमे में चार मुख्य दावेदार हैं। १. स्वर्गीय गोपाल सिंह विशारद,१९५०में अदालत में अर्जी दाखिल कर पूजा करने इजाज़त मांगी थी। १९५० में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अदालत में मूर्ति हटाने की याचिका डाली, लेकिन अदालत ने मूर्ति हटाने से इंकार करते हुए पूजा जारी रखने का आदेश दिया। २. निर्मोही अखाड़ा, जिसने १९५९ में विवादित जमीन पर मालिकाना हक़ को लेकर अर्ज़ी दी। ३. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, जिसने १९६१ में मस्जिद पर मालिकाना हक़ को लेकर एक अर्ज़ी दाख़िल की। ४. राम जन्मभूमि न्यास, जिसने १९८९ में विवादित ज़मीन पर क़ब्जे़ के लिए अर्ज़ी डाली।विवादित ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर चारों अर्ज़ियां फ़ैजाबाद अदालत में १९८९ तक लंबित रहीं, जिन्हें बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के विशेष बेंच को भेज दिया गया।२००३ में अदालत के आदेश पर पुरातत्व विभाग ने विवादित ज़मीन की खुदाई की और मंदिर के अवशेष पाए जाने की रिपोर्ट दी।
इसी मामले में अदालत का फ़ैसला आने वाला है, लेकिन ६० साल से ज़्यादा पुराने इस विवाद का अंत यहां पर भी नहीं है। क्योंकि फ़ैसला चाहे जिसके भी पक्ष में आए, इतना तय है कि दूसरा पक्ष सुप्रीम कोर्ट ज़रूर जाएगा।देश के बेहद पुराने और सबसे मुश्किल मामलों में से एक अयोध्या विवाद में मालिकाना हक़ की जंग भले ही सिर्फ़ चार पक्षकारों के बीच हो, लेकिन अदालत के बाहर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े दूसरे संगठनों की भूमिका भी कम अहम नहीं है। आस्था का सवाल उठाकर संघ ने उन्नीस सौ वानवे में राम जन्मभूमि विवाद को आंदोलन की शक्ल दी। हालांकि इस बार वह ज़्यादा सजग है। इस बार संघ पहले की तरह आंदोलन करने के बजाए जनजागरण की रणनीति पर चल रहा है और इसकी कमान उसने बीजेपी के बजाए संतों और वीएचपी के हाथ में दे रखी है। जनजागरण का यह अभियान क़रीब डेढ़ साल पहले गोरक्षा आंदोलन से शुरू हुआ और इस वक़्त हनुमतशक्ति जागरण के रूप में जारी है। इसी रणनीति के तहत संघ ने जहां अपने अनुषांगिक संगठनों को क़ानून के दायरे में रहने की हिदायत दी है, वहीं राम मंदिर को संसद में क़ानून लाकर बनाने की मांग भी की है। विवाद के दूसरे पक्ष यानी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तेवर भी पहले जैसे ही हैं। बातचीत के ज़रिए समाधान से अब तक इंकार करती आई बीएमएसी की निगाह अब फ़ैसले पर टिकी है। उसने साफ़ कर दिया है कि अगर फ़ैसला रास नहीं आया, तो वे सुप्रीम कोर्ट का रुख़ करेगी। हालांकि उसने भी अपने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है। ज़ाहिर है दोनों पक्षों को पता है कि फ़ैसला चाहे जो भी आए, मामला सुप्रीम कोर्ट में ज़रूर जाएगा। लेकिन अच्छी बात ये है कि दोनों को मामले की संवेदनशीलता का अहसास है और दोनों ही अमन-चैन बनाए रखने की बात कर रहे हैं।

अदालत में २० मुद्दे शामिल है, जिन्हें इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने फ़्रेम किया है-
.क्या ढहा दिया गया ढांचा, मस्जिद था?
.ढांचे को कब और किसने बनवाया था?
३.क्या इसे एक हिन्दू मंदिर को ध्वस्त कर के बनवाया गया था?
४. क्या मुसलमान, बाबरी मस्जिद में अनंतकाल से इबादत करते आए थे?
५. क्या १५२८ से मुसलमानों ने इसे अपने क़ब्ज़े में रखा था?
६. क्या मुसलमानों ने १९४९ तक इसे अपने क़ब्ज़े में रखा था?
७.क्या इस पर केस बहुत देर से दायर हुआ?
८.क्या लगातार पूजा के ज़रिए हिन्दुओं ने अधिकार हासिल कर लिया?
९.क्या भूखंड राम का जन्मस्थान है?
१०.क्या हिन्दुओं ने अनंतकाल से वहां राम जन्मस्थान के रूप में पूजा की है?
११.क्या मूर्तियां ढांचे के अंदर २२/२३ दिसंबर, १९४९ की रात को रखी गईं, या पहले से थीं?
१२.क्या ढांचे से लगा चबूतरा, भंडार और सीता रसोई; ढांचे के साथ ढहा दिया गया?
१३.क्या ढांचे से लगे भूखंड पर एक पुरानी कब्रगाह और एक मस्जिद थी?
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क्या ढांचा पूजा स्थलों से घिरा हुआ है, जिसे पार किए बिना ढांचे तक नहीं पहुंचा जा सकता?
१५.क्या इस्लाम के मुताबिक उस भूखंड पर मस्जिद नहीं बनाई जा सकती, जहां मूर्तियां रख दी गई हों?
१६.क्या ढांचा क़ानूनी रूप से मस्जिद नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें मीनारे नहीं थीं?
१७.क्या यह ढांचा एक मस्जिद नहीं हो सकती, क्योंकि यह तीन ओर से कब्रगाह से घिरा था?
१८.क्या ढांचे के विध्वंस के बाद इसे अभी भी मस्जिद कहा जा सकता है?
१९.क्या ढांचे को ढहा दिये जाने के बाद मुसलमान खुली जगह में नमाज़ पढ़ सकते हैं?
२०.क्या वादी मुस्लिम संगठन; राहत पाने का हकदार है और अगर हां तो क्यों? यह वे मुद्दे हैं,

फ़ैसले पर राजनीतिक समीकरणः केंद्र और राज्यों की सरकारें तो फ़ैसले को लेकर क़ानून-व्यवस्था के सवाल पर चौकस दिख रही हैं, लेकिन उन सरकारों में काबिज़ सियासी दलों का व्यवहार कितना ज़िम्मेदारी भरा होगा, यह कहना मुश्किल है। केंद्र में यूपीए के भीतर और बाहर फ़ैसले के बाद के असर की अगुआई करने की तगड़ी जंग छिड़ सकती है। वैसे यूपीए को बाहर से समर्थन देने वाले लालू-पासवान की जोड़ी ने बिहार चुनाव के पहले ही कांग्रेस से कन्नी काट ली है और उसकी आगे की रणनीति में अदालत के फैसले की अहम भूमिका होगी। दरअसल, आडवाणी की रथ यात्रा को बिहार में रोक एमवाई समीकरण को पुख़्ता करने वाले लालू ने पंद्रह साल तक बिहार पर राज किया। लेकिन अब वे सियासी वजूद की लड़ाई लड़ने पर मजबूर हैं। नीतीश कुमार ने लालू के जातीय समीरण पर आर्थिक छुरी चला दी है, ऐसे में अयोध्या पर फ़ैसले के बाद लालू अपने पुराने तेवर में लौट सकते हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस को भी अल्पसंख्यक वोट वापस चाहिए, लेकिन गुड़ खाने और गुलगुले से परहेज करने की तर्ज़ पर उसकी दुविधा यह है कि वह बहुसंख्यकों को भी नाराज़ नहीं करना चाहती। लिहाज़ा हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रज़ामंदी नहीं बनने की सूरत में वो दोनों ही पक्षों को सुप्रीम कोर्ट जाने के विकल्प के खुले होने की याद दिला रही है।
उधर वामपंथी खेमा टीएमसी की ममता बनर्जी से अपने ही गढ़ में मात खा रहा है। ऐसे में फ़ैसले के बाद यूपीए के दलों में मचने वाली खलबली से फ़ायदा उठाने का मौक़ा वह भी नहीं चूकना चाहेंगे। लब्बोलुआब यह है कि जल्द ही इन दलों के बीच सबसे बड़े सेक्युलर की रेस शुरू होने वाली है।

अयोध्या का मसला किसी के लिए आस्था का है, तो किसी के लिए सियासत का, तो किसी के लिए सम्मान का। संघ परिवार तो जैसे आस्था, सियासत और सम्मान के इसी त्रिशूल पर टंग गया है। अयोध्या का मुद्दा न उसे निगलते बन रहा है, न उगलते। संघ का सियासी संगठन बीजेपी इसे लेकर दुविधा में है तो धार्मिक संगठन वीएचपी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया है। इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ने वाला और ख़ुद को सामाजिक संगठन बताने वाला आरएसएस भी इसे लेकर सारे पत्ते खोलने से डर रहा है। हालांकि पक्ष और विपक्ष- दोनों ही तरह के फ़ैसलों की सूरत में जन आंदोलन खड़ा करने की उसकी पूरी तैयारी है। लेकिन यह तैयारी धरी की धरी रह जाएगी अगर जनता ने चुप्पी साध ली। ज़ाहिर है यह उसके विचार धारा के मूल को ख़ारिज़ करने जैसा होगा, फिर संघ क्या करेगा। इसीलिए संघ ने जम्मू कश्मीर के मसले पर आंदोलन करने की वैकल्पिक योजना भी बनाई है।
साफ़ है कि अयोध्या मुद्दे पर संघ अब खुलकर तभी आएगा, जब उसे लगेगा कि इस मामले में अब भी जनता की दिलचस्पी बची हुई है और राम मंदिर की ख्वाहिश लोगों के मन में आज भी उसी तरह ज़िंदा है, जैसे नब्बे के दशक में ज़िंदा थी। कमोबेश ऐसे ही मनःस्थिति उस दूसरे खेमे की भी है, जो अब तक मस्जिद की पैरोकारी करते रहे हैं।

Wednesday, September 22, 2010

फैसला

फैसला .....फैसला .....फैसला .....? आखिर किस का फैसला .....? फैसला हमें बांटने का फैसला हमारे दिलों का!क्या देश का प्रत्येक ब्यक्ति चाहता है कि हम फैसले का इंतजार करें. अरे मंदिर और मस्जिद पर राजनीति करने वालो बहुत हो गई राजनीती अब तो बंद कर दो अब देश का बच्चा-बच्चा आप की राजनीति समझ गया है. अब घायल भारत माता को और मत रुलाओ. इस माँ ने क्या तुमें जन्म दे कर गलती कर दी... जो धर्म के नाम पर लहुलुहान करते जा रहे हो...... ये हमारी ही नहीं देश के हर नागरिक की सोच है.हमें दूर मत करो हमारे ही परिवार से हम कहीं भी मंदिर बना लेंगे और कहीं भी मस्जिद चिंता आप को नहीं होनी चाहिए आप तो अपने राज्य करने कि चिंता करो कैसे करेंगे? जिन्दा रहने के लिए रोटी,कपड़ा और मकान तो दे नहीं पा रहे चले हैं चिंता करने कि पूजा/सजदा के लिए जगह दे दें. हमारा ध्यान मत बांटो हमारा ध्यान सिर्फ रोटी,कपड़ा और मकान पर है और इस कि पूर्ति करके परिवार चलाने दो. चिंता आप करें जो देश की जनता को रोटी,कपड़ा और मकान देने मैं सक्षम तो हैं नहीं और जनता का ध्यान भटकाने के लिए मंदिर और मस्जिद पर राजनीति करने के लिए बैठ गए ताकि जनता रोटी,कपड़ा और मकान के लिए हमारी कुर्सी न खींच ने लगे. फैसला तो होगा पर फैसला रोटी,कपड़ा और मकान का होगा न कि मंदिर और मस्जिद का!!!! फैसला होगा उस कुर्सी का जो रोटी,कपड़ा और मकान नहीं दे पारही हैं . ६२ वर्षों से जनता को बेबकूफ बनाते आरहे राजनीतिज्ञों अब हर ब्यक्ति तुम्हारी चाल से वाकिफ हो गया है............... संतोष सिंह सिकरवार

Saturday, September 11, 2010

मेरा समाज

हर पुरुष को एक प्रेमिका की जरूरत पड़ती है , यदि वह असमान्य नहीं है तो !अगर किसी की पत्नी ही प्रेमिका का रोल जीवन भर अदा करती आरही है तो उससे बड़ा भाग्यबान कोई नहीं हो सकता . अतः हर पत्नी को अपनी पति के साथ प्रेमिका बनके रहना चाहिए , इसी तरह हर स्त्री को एक प्रेमी की आबश्यकता होती है तो पति को भी चाहिए की वोह अपनी पत्नी के साथ प्रेमी जैसा व्यवहार कर जीवन व्यतीत करे . मगर इस प्रकार का सफल जीवन यापन करने वाले ग्रहस्थियाँ दुनियां है कितनी ? जो है उन्हें हम आदर्श ग्रहस्ती की उपाधि से जानना चाहता हूँ. हमारे अनुसार तो जो भी स्त्री/पुरुष इस तरह की भूमिका अदा नहीं कर पारहा और वह अन्य प्रेमी/प्रेमिका के साथ जिंदिगी जी रहा है वह बुरा कार्य नहीं कर रहा .वैसे दुनियां मैं ९९% लोग इस प्रकार की ही जिंदगी जी रहे हैं. अगर सामान्य इन्सान है तो वह अपनी हसरत पूरी करने के लिए बाज़ार मैं निकल जाता है.यदि बात गलत हो तो मुझे जवाब चाहिए दुनियां मैं बहुत सेक्स स्केंडल चल रहे हैं वहां कौन जाता है? इसी से छुब्ध लोग बलात्कार जैसा घिनोना कार्य कर बैठते हैं. जिसे मेरा समाज खलनायक की उपाधि दे डालता है.यदि इसे रोकना है तो प्रेमी/प्रेमिका बनो खलनायक नहीं.

जान से

अपनों से जुदा कर देती है ,आखों में पानी भर देती है ,
कितनी शिकायत है अपनी
जान से .
फिर भी इसका ऐतबार है ,फिर भी इसका इंतज़ार है ,
हमको मोहब्बत है अपनी
जान से .
कभी खुशियों का अम्बार लगा देती है , कभी तन्हां अकेला छोड़ देती है .
कभी हमपे करम फरमाती है ,कभी हमसे नज़र चुराती है .
पलकों से इसको चखते हैं ,हमेशा पास रहने की तमन्ना रखते हैं ,
इतनी नजाकत है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनी जान से .
हमको अदाएं दिखाती है ये ,जीने-मरने की भी कसमें खाती है ये .
कभी पास है तो कभी दूर है ,मेरी जान भी बड़ी मशहूर है .
कभी करती है आँख मिचोली ,कभी सजाये सपनो की डोली ,
इतनी शरारत है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनी जान से .
दूर ये हो तो गम होता है ,पास हो तो इसका करम होता है .
खुद अपनी मर्ज़ी से चलती है ,सूरज की तरह से ये ढलती है .
इसे जब भी हम देखते हैं ,मन ही मन ये सोचते हैं ,
कितनी हिफाज़त है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है अपनी जान से .
आंसू भी हो तो पी लेते हैं ,पल दो पल ख़ुशी से जी लेते हैं .
हर पल हमको नहीं है रोका ,थोडा हमको भी देती मौका .
जिंदगी गुजर जाए तकरार में ,चाहे गुजर जाए ये प्यार में ,
इतनी इज़ाज़त है अपनी
जान से .हमको मोहब्बत है
अपनी जान से .